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सप्तम सर्ग

सरस सुधा सी भरी उक्ति के।
नितान्त - लोलुप श्रवण रहेंगे।
किन्तु चाव से उसे सुनेगे ।
भले - भाव जो भली कहेंगे ॥६४।।

हृदय हमारा व्यथित बनेगा।
स्वभावतः वेदना सहेगा ।।
अतीव - आतुर दिखा पड़ेगा।
नितान्त - उत्सुक कभी रहेगा ।।६६।।

कभी आह ऑधियाँ उठेगी।
कभी विकलता - घटा घिरेगी ।।
दिखा चमक चौक - व्याज उससे ।
कभी कुचिन्ता - चपला फिरेगी॥६६॥

परन्तु होगा न वह प्रवंचित ।
कदापि गन्तव्य पुण्य - पथ से ॥
कभी नहीं भ्रान्त हो गिरेगा।
स्वधर्म - आधार दिव्य रथ से ॥६७।।

सदा करेगा हित सर्व-भूत का।
न लोक आराधन को तजेगा।
प्रणय - मूर्ति के लिये मुग्ध हो।
आर्त - चित्त आरती सजेगा ॥६८॥