पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१४५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०७
सप्तम सर्ग

हरे भरे खेत सामने आ।
भभर, रहे भागते जनाते ।।
विविध रम्य आराम भूरि - तरु ।
पंक्ति - वद्ध थे खड़े दिखाते ।।४४।।

कहीं पास के जलाशयों से ।
विहंग उड़ प्राण थे बचाते ॥
लगा लगा व्योम - मध्य चक्कर ।
अतीव - कोलाहल थे मचाते ॥४५॥

कहीं चर रहे पशु विलोक रथ ।
चौक चौक कर थे घबराते ॥
उठा उठा कर स्वकीय पूँछे ।
इधर उधर दौडते दिखाते ॥४६॥

कभी पथ - गता ग्राम - नारियाँ।
गयंद - गतिता रही दिखाती ।।
रथाधिरूढ़ा कुलांगना की।
विमुग्ध वर - मूर्ति थी वनाती ॥४७॥

कनक-कान्ति, कोशल-कुमार का।
दिव्य - रूप सौदर्य - निकेतन ।।
विलोक किस पांथ का न बनता ।
प्रफुल्ल अंभोज सा विकच मन ॥४८॥