पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१४४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०६
वैदेही-वनवास

सुने सुमित्रा - कुमार बाते ।।
दिशा हुई जय - निनाद भरिता ॥
बही उरों में सकल - जनों के।
तरंगिता बन विनोद - सरिता ॥३९।।

पुनः सुनाई पड़ा राजकुल ।
सदा कमल सा खिला दिखावे ॥
यथा - शीघ्र फिर अवध धाम में ।
वन्दनीयतम - पद पड़ पावे ॥४०॥

चला वेग से अपूर्व स्यंदन ।
चली गई यत्र तत्र जनता ।।
विचार - मन्ना हुई जनकजा।
बड़ी विषम थी विषय - गहनता ॥४१॥

कभी सुमित्रा - सुअन ऊबकर ।
वदन जनकजा का विलोकते ।।
कभी दिखाते नितान्त - चिन्तित ।
कभी विलोचन - वारि रोकते ॥४२॥

चला जा रहा दिव्य यान था।
अजस्र था टाप - रव सुनाता ।।
सकल - घंटियाँ निनाद रत थी।
कभी चक्र घरित जनाता ॥४३।।