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वैदेही-वनवास

खड़ी द्वार पर कुलांगनाये ।
रही मांगलिक - गान सुनाती ॥
विनम्र हो हो पसार अञ्चल ।
रहीं राजकुल कुशल मनाती ॥२९॥

शनैः शनैः मंजुराज - पथ पर ।
चला जा रहा था मनोज्ञ रथ ।।
अजस्र जयनाद हो रहा था।
वरस रहा फूल था यथातथ ॥३०॥

निमग्न आनन्द में नगर था।
बनीं सुमनमय अनेक - सड़के ।।
थके न कर आरती उतारे ।
दिखे दिव्यता थकी न ललके ।।३१।।

नगर हुआ जब समाप्त सिय ने ।
तुरन्त सौमित्र को विलोका ।।
सुमित्र ने भाव को समझकर ।
सँभाल ली रास यान रोका ॥३२॥

उतर सुमित्रा - कुमार रथ से।
अपार - जनता समीप आये ।।
कहा कृपा है महान जो यों।
कृपाधिकारी गये वनाये ॥३३॥