पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१३६

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सप्तम सर्ग
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मंगल सावा
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मत्तसमक

अवध पुरी आज सन्जिता है।
बनी हुई दिव्य - सुन्दरी है।
विहँस रही है विकास पाकर ।
अटा अटा में छटा भरी है ॥१॥

दमक रहा है नगर, नागरिक-
प्रवाह में मोद के बहे हैं।
गली गली है गई सँवारी ।
चमक रहे चारु चौरहे हैं ॥२॥

बना राज - पथ परम - रुचिर है।
विमुग्ध है स्वच्छता बनाती ।।
विभूति उसकी विचित्रता से ।
विचित्र है रंगते दिखाती ॥३॥