पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१३

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से पीड़ित होने पर किसी विभूतिमत् सत्व का धरा में अवतीर्ण होना क्या करुण रस का आह्वान नही है? क्या ग्राह से गजमोक्ष सम्बंधिनी क्रिया में कारुणिकता नही पाई जाती और क्या यह अद्भुत रस के कार्य्य-कलाप का निदर्शन नहीं है? कान्त-कवितावली के आचार्य्य जयदेवजी ने जिन बुद्धदेव को 'कारुण्यमातन्वते' वाक्य द्वारा स्मरण किया है, उनका वसुंधरा की एक तृतीयांश जनता के हृदय पर केवल करुणा के बल से अधिकार कर लेना क्या अतीव-अद्भुत-कार्य्य नहीं है? एक बहुत बड़ा सम्राट् भी आज तक इतनी बड़ी जनता पर अस्त्र शस्त्र अथवा पराक्रम बल से अधिकार नहीं कर सका। अतएव बुद्धदेव के कारुणिक-कार्य्य-कलाप में अद्भुत रस का कैसा समावेश है, इसको प्रत्येक सहृदय व्यक्ति समझ सकता है। रही रौद्र रस की बात, उसके विषय में यह कहना है कि क्या उपहास-मूलक हास्य उस रौद्र-भाव का सृजनकर्त्ता नहीं है, जिसकी संचालिका कारुणिक खिन्नता होती है। आतताइयों, अत्याचारियों, देश जाति के द्रोहियों, लोकहित-कंटकों की विपन्न दशा क्या मानवता के अनुरागियों, संसार के शान्ति सुख के कामुकों और लोकोपकार निरतों को हर्षित नहीं करती, और क्या उनके उत्फुल्ल आननो पर स्मित की रेखा नहीं खींचती, और क्या यह करुण रस का विकास हास्य-रस में नहीं है? अब तक जो कुछ कहा गया उससे भवभूति प्रतिभा प्रसूत श्लोक की वास्तवता मान्य और करुण रस की महनीय महत्ता पूर्णतया स्वीकृत हो जाती है।