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पष्ठ सर्ग
जिसकी सिद्धि-दायिनी तुम हो।
तुम सच्ची गृहिणी हो जिसकी ।।
सव तन मन धन अपण कर भी।
अब तक बनी ऋणी हो जिसकी ॥३८॥
अरुचिर कुटिल - नीति से ऊबे ।
जिसको तुम पुलकित करती हो ।।
जिसके विचलित-चिन्तित-चित मे ।
चारु - चित्तता तुम भरती हो ॥३९॥
कैसे काल कटेगा उसका।
उसको क्यों न वेदना होगी।
होते हृदय मनुज - तन - धर वह ।
बन पायेगा क्यों न वियोगी ॥४०॥
रघुनन्दन है धीर - धुरंधर ।
धर्म प्राण है भव - हित - रत है।
लोकाराधन में है तत्पर ।
सत्य - संध है सत्य - व्रत है ॥४१॥
नीति - निपुण है न्याय - निरत है।
परम - उदार महान - हृदय है।
पर उसको भी गूढ़ समस्या ।
विचलित करती यथा समय है॥४२॥