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वैदेही-वनवास
कुछ कालोपरान्त कुछ लाली ।
काले घन - खंडों ने पाई॥
खड़ी ओट में उनकी ऊपा।
अलस भाव से भरी दिखाई ॥३॥
अरुण - अरुणिमा देख रही थी।
पर था कुछ परदा सा डाला ॥
छिक छिक करके भी क्षिति-तल पर।
फैल रहा था अब उँजियाला॥४॥
दिन-मणि निकले तेजोहत से।
रुक रुक करके किरणे फूटीं ॥
छूट किसी अवरोधक - कर से ।
छिटिक छिटिक धरती पर टूटी ।।५।।
राज - भवन होगया कलरवित ।
बजने लगा वाद्य तोरण पर ॥
दिव्य - मन्दिरों को कर मुखरित ।
दूर सुन पड़ा वेद - ध्वनि स्वर ॥६॥
इसी समय मंथर गति से चल ।
पहुंची जनकात्मजा वहाँ पर ।।
कौशल्या देवी बैठी थी।
बनी विकलता - मूर्ति जहाँ पर ॥७॥