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'स च पूर्वराग मान प्रवास करुणात्मकश्चतुर्धा स्यात्'
'वह विप्रलम्भ १–पूर्वराग २–मान ३–प्रवास और ४–करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है'।
इन पंक्तियों के पढ़ने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रृंगार रस पर करुण रस का कितना अधिकार है और वह उसमें कितना व्याप्त है। यह कहना कि बिना विप्रलम्भ के संभोग की पुष्टि नहीं होती, यथार्थ है और अक्षरशः सत्य है। प्रज्ञाचक्षु श्रृंगार साहित्य के प्रधान आचार्य्य श्रीयुत् सूरदासजी की लेखनी ने शृंगार रस लिखने में जो कमाल दिखलाया है, जो रस की सरिता बहाई है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। किन्तु संभोग शृंगार से विप्रलम्भ श्रृंगार लिखने में ही उनकी प्रतिभा ने अपनी हृदय-ग्राहिणी-शक्ति का विशेष परिचय दिया है। उद्धव सन्देश सम्बंधिनी कविताये, श्रीमती राधिका और गोपबालाओ के कथनोपकथन से सम्पर्क रखनेवाली मार्मिक रचनाये, कितनी प्रभावमयी और सरस हैं, कितनी भावुकतामयी और मर्म्मस्पर्शिनी हैं। उनमें कितनी मिठास, कितना रस, कैसी अलौकिक व्यंजना और कैसा सुधास्रवण है, इसको सहृदय पाठक ही समझ सकता है। वास्तव बात यह है कि सूरसागर के अनूठे रत्न इन्हीं पंक्तियों में भरे पड़े हैं। नवरस सिद्ध महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी के कोटिशः जन-पूजित रामचरितमानस मे जहाँ जहाँ उनकी हृत्तंत्री के तार विप्रलम्भ कर से झङ्कृत हुए हैं, वहाँ वहाँ की अवधी