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पंचम सर्ग

दिवि-दिव्यता अदिव्य बनी अब नहीं दिग्वधू हॅसती थी।
निशा-सुन्दरी की सुन्दरता अब न हगों में बसती थी ।।
कभी घन-पटल के घेरे में झलक कलाधर जाता था।
कभी चन्द्रिका बदन दिखाती कभी तिमिर घिर आता था ॥९॥

यह परिवर्तन देख अचानक जनक-नन्दिनी अकुलाई ।
चल गयंद-गति से अपने कमनीयतम अयन में आई ॥
उसी समय सामने उन्हें अति-कान्त विधु-बदन दिखलाया।
जिस पर उनको पड़ी मिली चिरकालिक-चिन्ता को छाया ॥१०॥

प्रियतम को आया विलोक आदर कर उनको बैठाला।
इतनी हुई प्रफुल्ल सुधा का मानों उन्हें मिला प्याला ।।
बोली क्यों इन दिनों आप इतने चिन्तित दिखलाते हैं।
वैसे खिले सरोज - नयन किसलिये न पाये जाते हैं ।।११।।

वह त्रिलोक-मोहिनी-विकचता वह प्रवृत्ति - आमोदमयी ।
वह विनोद की वृत्ति सदा जो असमंजस पर हुई जयी ।
वह मानस की महा - सरसता जो रस बरसाती रहती।
वह स्निग्धता सुधा-धारा सी जो वसुधा पर थी बहती ॥१२॥

क्यों रह गई न वैसी अब क्यों कुछ बदली दिखलाती है।
क्यों राका की सिता में न पूरी सितता मिल पाती है ।।
बड़े बड़े संकट -समयों मे जो मुख मलिन न दिखलाया।
अहह किस लिये आज देखती हूँ मैं उसको कुम्हलाया ॥१३।।