तिरस्कार करना ही उनके जीवन का प्रधान कर्तव्य था। अंग्रेजी भाषा के सुशिक्षितों को उसे अपनी मातृभाषा स्वीकार करने में भी संकोच था, और वे लोग प्रायः यह कहते देखे जाते कि “हिन्दो भाषा में है ही क्या! यदि उसमें विशेषता होती तो वह स्वयं लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती। हिन्दी लेखक भी उन दिनों इने गिने थे और सर्व साधारण में आदर की दृष्टि से नहीं देखे जाते थे। हिन्दी प्रेमियों की बातही क्या कहें, वे उँगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर भी हिन्दी संसार का तमसाच्छन्न आकाश धीरे धारे उज्ज्वल हो रहा था।
मैं उसी समय की बात कहता हूँ। उन दिनों मैं निजामाबाद (जिला आजमगढ़) के मिडिल स्कूल में अध्यापक था। काशीनिवासी स्वर्गीय श्रीमान् पण्डित लक्ष्मीशंकर मिश्र की 'काशी पत्रिका' का उस समय बड़ा प्रचार था। वह प्रत्येक मिडिल स्कूल में आती थी, और आदर की दृष्टि से देखो
जाती थी। आप उन दिनों स्कूलों के इन्स्पेक्टर थे। आप हिन्दुस्तानी भाषा के पक्षपाती थे, और इसी भाषा में 'काशी पत्रिका' को निकालते थे। हिन्दुस्तानी भाषा नाम होने पर भी एक प्रकार से इस पत्रिका की भाषा उर्दू ही थी। उसमें अधिकतर फारसी और अरबी शब्दों का ही प्रयोग होता था। हाँ, इन भाषाओं के क्लिष्ट शब्द नहीं आने पाते थे। उन्हीं दिनों इस पत्रिका में 'वेनिस का बाँका' नामक एक रोचक उपन्यास अंग्रेजी से अनुवादित होकर निकला। स्वर्गीय बाबू श्याम मनोहरदास उन दिनों आजमगढ़ के डिप्टी इन्स्पेक्टर थे। उनको यह उपन्यास बहुत पसन्द आया। जब दोग करते हुए प्रशंसित बाबू साहब निजामाबाद आए, तब छात्रों की परीक्षा लेने के बाद उन्होंने उक्त