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एकादश परिच्छेद
 

फ्लोडोआर्डो उसके कथनानुसार चुपचाप साथ हो गया और नर्तकोंके समीप पहुँचकर, दोनों नृत्यमें लीन हो गये। उस समय के सौंदर्य का क्या पूछना। प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि इन्हीं दोनों पर थी और प्रत्येक दिशा से स्तुति और प्रशंसा की ध्वनि चली आती थी। परन्तु रोजाविला और फ्लोडोआडौं इसका तनिक भी ध्यान न करते थे, क्योंकि उनके जी में यदि प्रशंसा श्रवणकी कुछ भी आकांक्षा थी तो केवल एक दूसरे के मुख से।



एकादश परिच्छेद।

रोजाबिलाकी वर्षग्रन्थिके तृतीय दिवस संध्या समय परोजी अपने मित्रों मिमो और फलीरी के साथ अपने आगार में बैठा था। प्रत्येक ओर एक प्रकारकी उदासीनता छार ही थी, वर्तिकायें आप धुँधली और निस्तेज जलती थीं, आकाश अलग बलाहक समूहों से आच्छादित दिखलाई देता था, और सबसे अधिक इनके हृदयों में भय और असमंजस का प्रचण्ड प्रभंजन उठ रहा था। अन्ततः बहुत काल पर्यन्त स्तब्ध रहने उपरान्त परोजी ने कहा "ऐं" तुमलोग किस चिन्ता में निमग्न हो? लो एक एक पानपात्र भरकर मद पान करो"।

मिमो―(अरुचि के साथ)"अच्छा तुम्हारे आज्ञानुसार पान करता हूँ परन्तु आज तो मदपान करने के लिये मेरा जी नहीं चाहता"।

फलीरी―"और न मेरा जी चाहता है मुझे तो सुराका स्वाद आज सिर्केकासा ज्ञाता होता है पर वास्तव में यह निस्वाद मद में नहीं है बरन हमारे चित्त में है।