'वेनिस का बाँका' ही ऐसा ग्रन्थ है जो बिलकुल अप्राप्य है और जिसे देखने की अभिलाषा लोग प्रायः प्रकट किया करते हैं। पर बात यहीं तक रह जाती थी। आज से प्रायः तीन वर्ष पूर्व फिर एक बार पिताजी ने पूज्य पण्डितजी से वही बात कही। इस पर पण्डितजी ने बहुत ही उदारतापूर्वक सहर्ष और निःस्वार्थ भाव से कहा कि यदि आप उसका द्वितीय संस्करण देखने के लिये इतने ही उत्सुक हैं तो आप स्वयं ही उसे प्रकाशित कर सकते हैं। पिताजी ने भी यह भार अपने ऊपर लेना सहर्ष स्वीकृत कर लिया। यद्यपि पूज्य पण्डितजी ने थोड़े ही दिनों में मूल पुस्तक भली भाँति दोहराकर और उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके दे दी थी, पर खेद है
अनेक कारणों से इसके प्रकाशन में बराबर तरह तरह के विघ्न पड़ते गए और इसी से पुस्तक के तैयार होने में विलम्ब होता गया। कुछ तो शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक तथा आर्थिक कठिनाइयाँ थीं और कुछ छपाई और कागज आदि के सम्बन्ध की भी अड़चनें थीं। तो भी मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि इन सब कठिनाइयों तशा अड़चनों को पार करके अन्त में यह पुस्तक सर्व साधारण के सामने आ ही गई। इसके अतिरिक्त पूज्य हरिऔधजी का भी मैं बहुत
अधिक कृतज्ञ तथा अनुगृहीत हूँ जिनकी कृपा तथा आज्ञा से यह पुस्तक प्रकाशित हुई है। अपने माननीय आश्रयदाता तथा पुराने स्कूल सहपाठी श्रीमान् राय गोविन्दचन्द्र जी महोदय का भी मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँ जिन्होंने मुझे इस पुस्तक के प्रकाशनमें आर्थिक सहायता प्रदान की है। यदि
मुझ सुदामा पर उक्त माननीय राय साहब की कृष्णवत्कृ पादृष्टि न होती तो कदाचित् इस पुस्तक का प्रकाशन मेरे
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