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वेनिस का बांका
 

अनन्तर निशीथ काल आया और घड़ियाली ने टनाटन बारह का गजर बजाया। फिर भी एक पथिक शोकित का सा स्वरूप बनाये मुख पर सन्ताप की छाप लगाये बड़ी नहर के कूल पर चुपचाप बैठा था, कभी वह आँख भर कर नगर के प्राचीरों और उन्नत प्रासादों की ओर देखता और कभी भैचक बन पानी की ओर टकटकी लगाता। अन्त को वह अपने आप कहने लगा “मैं अभागा अब कहां जाऊं, वेनिस तक तो आ पहुंचा अब यदि और भागे जाऊं तो क्या होगा, इसी हेर फेर से जीवन खोना पड़ेगा। न जाने भाग्य अब आगे क्या दिखावेगा। इस समय मेरे अतिरिक्त सब लम्बी ताने सोते होगे। महाराज उपधान आश्रय से कोमल गद्दी पर शयन करते होंगे, साधुगण निज कम्बल ही में मगन होंगे। किन्तु मेरे लिये दोनो में से एक भी नहीं यदि है भी तो यह शीतलसीली पृथ्वी। श्रमजीवी भी दिन भर परिश्रम करके सन्ध्या को छुट्टी पाता है और रात को पैर फैला कर चैन से सोता है, पर मेरा भाग्य मुझे भली भांति नाच नचाता और प्रत्येक क्षण एक नवीन राग अलापता है। इतना कह कर उसने तीसरी बार अपनी फटी जेब में हाथ डाला, और बोला!" हाय इसमें तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं, क्षुधा केल सन्ताप से कलेजा मुँह को पाता है।" फिर कोश से खड्ग निकाल चाँदनी में हिलाने और उसकी चमके देख कर कहने लगा। "कदापि नहीं। कदापि नहीं!! मेरे सच्चे और पक्के सहकारी मैं तुझे अपने पास से कभी पृथक न करूंगा। तेरा शिरोभाग मृत्यु समय पर्यन्त मेरे हाथ में रहेगा चाहे भूख से शरीरांत भले ही हो जाय। हाय! हाय!! जब वह समय स्मरण होता है जिस समय शशिवदना बिलीरिया ने तुझे मुझको समर्पण किया, मेरी कटि से पटका बांधा, और