काके सम्पादक तथा साहित्य-विहार, ब्रजमाधुरीसार, संक्षिप्त सूरसागर आदि ग्रन्थों के लेखक तथा संकलनकर्ता लब्ध-प्रतिष्ठ वियोगीहरि जी ने इस पुस्तक की विस्तृत तथा सरल टीका की है। वियोगीजी साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित हैं,यह सभी जानते हैं। अतः उनका परिचय देने की आवश्यकता भी नहीं है। इस टीका में शब्दार्थ, भावार्थ, विशेषार्थ, प्रसग, पदच्छेद आदि सब ही कुछ दिये गये हैं। भावार्थ के नीचे टिप्पणीमें अन्तर कथाएँ, अलंकार, शंकासाधान आदि के साथ ही साथ समानार्थी हिन्दी तथा संस्कृत कवियों के अवतरण भी दिये गये हैं। अर्थ तथा प्रसंगपुष्टि के लिए गीता, वाल्मी कि रामायण तथा भागवत आदि पुराणों के श्लोक भी उद्धृत किये गये हैं। दर्शनिक भाव तो खूबही समझाये गये हैं। उपर्युक्त बातों के समावेश के कारण यह पुस्तक अपने ढंग की अद्वितीय हुई है, अब मूढ़ जन भी भगवद्-ज्ञाना- मृतका पान कर मोक्षके अधिकारी हो सकते हैं। हिन्दी-सा- हित्य में यह टीका कितने महत्त्वकी हुई है, यह उदारचेता, काव्य-कला-मज्ञ एवं नीर-क्षीर-विवे की सारित्यज्ञ ही बतला सकते हैं। तुलसी-काव्य-सुधा-पिपासु सज्जनों से हमारा आग्रह है कि एक प्रति इसकी खरीदकर गुसांईजी की रसमयी वाणीका वह आनन्द अवश्य लें, जिससे अभी तक वे वंचित रहे हैं। छपाई-सफाई भी दर्शनीय है। लगभग ७०० सात सौ पृष्ठोंकी पुस्तकका मूल्य २।।)ढाई रुपये, सजिल्द २॥।) बढ़िया कपड़े की जिल्दका ३)।
This book is sanctioned as a reference book for Hindi Teachers in high schools of Central Provinces & Berar.
[ Vide order no. 6801 Dated 28-9-26 ]