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चतुर्दश परिच्छेद
 

लिये तुमको सावधान और सतर्क करती हूँ कि पुनः ऐसा समालाप न करना। अब मैं गमन करती हूँ और तुम को जताये देती हूँ कि ऐसी धृष्टता से फिर मुझको कभी संतप्त न करना।

इतना कह कर वह उसके निकट से तिनक कर चली गई और वह दीन प्रेमपाश बद्ध अपने स्थान पर आश्चर्य्य और संताप के साथ चित्र बना बैठा रह गया।



चतुर्दश परिच्छेद।

उपवन से आकर रोजाविला अपने सुसज्जित आय- तन पर्य्यन्त भी न पहुँची थी, कि मार्ग ही में उसने स्वकृत कर्म पर पश्चाताप करना प्रारम्भ किया। उस समय शतशः विचार उसके अन्तःकरण में उठने लगे। किसी समय वह अपने मन में कहती थी कि मुझको फ्लोडोआर्डो को ऐसा कठोर और सूखा उत्तर देना कथमपि समुचित न था यह मैंने उस पर बड़ा अन्याय किया। कभी उसकी उस काल की दशा को वह स्मरण करती थी जब कि वह उसके निकट से रुष्ट होकर चली आई थी और वह बेचारा एक भित्ति निर्मित चित्र सदृश उसको खड़ा अनिमेष तकता रह गया था। फिर वह सोचती थी कि प्लोडोआर्डो यह संताप न सहन कर सकेगा और निस्सन्देह विलाप करते करते प्राण त्याग देगा। अभी से उसे ऐसा ज्ञात होता था जैसे वह इस लोक को छोड़ परलोकगामी हुआ हो और लोग उसके समाधि के इतस्ततः रुदन कर रहे हों। निदान इन बातों का व्यान करके वह आप ही आप रो रो कर कहने लगी "शोक!