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वेनिस का बांका
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रोजाविला ने कुछ उत्तर न दिया और कुसुम को अपने हाथ में दृढ़ता के साथ पकड़े रही।

फ्लोडोआर्डो―"इस सरस कुसुम के बदले में तुम जो कुछ चाहो मांगो, यदि इसके बदले में राज्य की भी याचना करोगी तो प्रदान करूँगा, अथवा उसकी खोज में अपना प्रिय प्राण नष्ट करूँगा परन्तु परमेश्वर के लिये रोजाविला यह पुष्प मुझे प्रदान करो"।

रोजाविलाने एकवार तिरछी चितवन से उस स्वरूपमान युवक की ओर देखा, परन्तु पुनरावलोकन का साहस न हुआ।

फ्लोडोआर्डो―"मेरा सुख, मेरा हर्ष, मेरा जीवन, बरन मेरा महत्व, ये सब वस्तुयें उस प्रसून के हस्तगत होने पर निर्भर हैं। केवल उसे मुझे दो और मैं संसार की सकल बहु- मूल्य वस्तुओं से इसी समय बिरक्त होता हूँ"।

उसकी इस प्रेम भरी और मोहमयी बातचीत से रोजा- विला का करकंज जिसमें वह प्रसून था काँपने लगा और चुटकी भी कुछ ढीली हो चली।

फ्लोडोआर्डो―"क्यों रोजाविला तुम कुछ मेरी भी सुनती हो? मैं तुम्हारे चरणकमलों पर निज शिर रक्खे हुए हूँ। क्या तुम मेरी याचना को जिसको मैंने भिक्षुकों की भाँति की है पूरा न करोगी"?

इस भिक्षुक शब्द पर रोजाविला को कामिला की शिक्षा- ओं का तत्काल स्मरण हो आया और वह अपने मन में कहने लगी "ऐं मैं क्या कर रही हूँ अभी से मैंने अपना प्रण तज दिया? वस रोजाबिला यहीं से मुड़ नहीं तो इसी क्षण तू बात की झूठी होती है"। यह सोच के उसने कुसुम को खण्ड खण्ड करके पृथ्वी पर फेंक दिया। और फ्लोडोआर्डो से कहा "फ्लोडोआर्डो मैं तुम्हारा आंतरिक अभिप्राय समझ गई इस