उपन्यास की चर्चा मुझ से की। साथ ही यह भी कहा कि अच्छा होता, यदि इसका अनुवाद शुद्ध हिन्दी में हो जाता। मैंने निवेदन किया कि उर्दू तो स्वयं हिन्दी भाषा का रूपान्तर है, उसका अनुवाद क्या! उन्होंने कहा कि मैं यह चाहता हूँ कि उर्दू अनुवाद में जितने फारसी और अरबी के शब्द हैं वे सब बदल दिये जायँ, और जो वाक्य उर्दू के ढंग में ढले हैं, उन्हें हिन्दी भाषा का रंग दे दिया जाय। मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया, और उसी का फल यह शुद्ध हिन्दी में लिखा गया, 'वेनिस का बाँका' नामक उपन्यास है। प्रत्येक फारसी और अरबी शब्दों के स्थान पर संस्कृत शब्दों का प्रयोग होने के कारण, ग्रन्थ की भाषा क्लिष्ट हो गई है, और उसमें जैसा चाहिए वैसा प्रवाह भी नहीं है, किन्तु उस समय ऐसा करने के लिये मैं विवश था।
आवेश का आदिम रूप कट्टर असंयत और आग्रहमय होता है, इसलिये उसके कार्यकलाप में विचारशीलता और गंभीरता नहीं पाई जाती। काल पाकर जब उसमें स्थिरता आती है, तब विवेक बुद्धि का उदय होता है, और उस समय जो मीमांसा की जाती है, वह मर्यादित होती है, उसमें औचित्य का अंश भी सविशेष पाया जाता है। हिन्दी भाषा के उत्थान काल में लोगों के आवेश की भी यही दशा थी, इसी कारण उस समय के हिन्दी उन्नायकों में यह दुराग्रह पाया जाता था कि शुद्ध हिन्दी भाषा में एक भी अरबी फारसो का शब्द न आने पावे। उस काल के हिन्दी लेखकों के अनेक लेख ऐसे मिलेंगे, जिनमें इस भाव की रक्षा की गई है। श्रीमान् भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के भी कई लेख ऐसे हैं, जो इस भाव के मूर्तिमन्त उदाहरण हैं। अब भी इस विचार के कुछ लोग पाये जाते हैं, किन्तु उनकी संख्या