फिर डा० एच० एच० विल्सन ने कोलबुक का अनुकरण किया । उनने ऋग्वेद संहिता का अंगरेजी अनुवाद किया। साथ ही उनने संस्कृत के कई नाटकों और मेघदृत तथा विष्णुपुराण का भी अनुवाद किया। इसी समय फ्रान्स में एक बड़े विद्वान हुए। ये वर्नफ साहब थे। इनने जिन्दावस्ता और वेदों का तारतम्य मिलाया और एक तारतम्या- त्मक व्याकरण भी बनाया। इनने ऋग्वेद की व्याख्या की और पार्य जाति के इतिहास पर उससे प्रकाश डाला तथा सीरिया के शंकु रूपी लेख भी पढ़े । फिर बौद्ध साहित्य का भी इनने उद्धार किया। इनने २५ वर्ष तक योरुप को प्राचीन संस्कृत साहित्य की शिक्षा दी। इनके शिष्यों में रॉथसाहय और प्रो० मैक्समूलर ने वेद साहित्य को बहुत कुछ स्पष्ट किया। इसी बीच में जर्मन विद्वानों ने इस विषय में बहुत उद्योग किया और वे सबसे आगे बढ़ गये । रोजन साहब ने जो राजा राममोहनराय के समकालीन थे ऋग्वेद के प्रथम अष्टक को लैटिन भाषा में अनुवाद किया । परन्तु उनकी असमय में मृत्यु हो जाने से वे इस कार्य को पूर्ण न कर सके। उस समय के प्रसिद्ध विद्वानों-चॉप, ग्रिम, और हम बोल्ट यादि- के परिश्रम और प्रयत्नों से भाषा सम्बन्धी युगान्तर कारी तत्व प्रकट हुए । इन विद्वानों ने योरुप को मनवा दिया कि संस्कृत, जिन्द, ग्रीक, लॅटिन, स्लेव, ट्यूटन और केल्टिक भापायों में परस्पर सम्बन्ध है और उनका मूल एक है। इस आविष्कार से संस्कृत सव भाषाओं की माता प्रमाणित हुई और उस शताब्दि के प्रबल विद्वान रॉथ साहब ने यास्क के निरुक्त का अपनी बहुमूल्य टिप्पणी के साथ सम्पादन किया। इसके बाद टनने दिटवी साहय के साथ अथर्ववेद का सम्पादन किया और वाहलिक साहब के साथ संस्कृत भाषा का एक पूर्ण कोश तैयार
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