दूसरा अध्याय पर इन्द्र का वन गिरे।” (१६) इस वैदिक काल के दुप भाव को पुराणों ने अतिरंजित कर दिया है। पौराणिक गाथाओं में विश्वामिन्न को क्षत्रिय से ब्राम्हण होना बतायागया है । पर ऋग्वेद में न चे ब्राम्हण हैं न क्षत्रिय । वे प्रथम योद्धा ऋषि और फिर पुरोहित ऋपि है। विश्वामित्र के बहुत से श्रेष्ठ सूक्त ऋग्वेद में हैं और प्राधुनिक प्राम्हणों का वह सावित्री सूक्त लो गायत्री कहा जाता है विश्वामित्र का ही है। उनका जन्म क्षत्रियकुल में मानकर महाभारत, हरिवंश और विष्णुपुराण में उनके ब्राम्हण हो जाने की अद्भुत कथा लिख दी है । इसके शिवा हरिश्चन्द्र की कथा में उन्हें क्रोधी, ऋर, निष्ठुर एवं लोभी ऋपि के तौर पर दिखाया गया है। नृशंकु राना सदेह स्वर्ग जाना चाहता था। उसने वशिष्ट से कहा। वशिष्ट ने उसके विचार को असम्भव बताया, पर विश्वामित्र ने पूर्ण संभव कहा । वशिष्ठ ने क्रुद्ध होकर उसे चाण्डाल कर दिया; पर विश्वा- मित्र ने उसे यज्ञ कर स्वर्ग भेज दिया। इन्द्र ने उसे स्वर्ग से ढकेल दिया; तब विश्वामित्र ने उसे वहीं रोक दिया और एक और ही स्वर्ग की सृष्टि करने लगे। यह पोराणिक गाथा है, इस नमूने की बहुत घडली गयी हैं, जिनमें काल-क्रम की परवा भी नहीं की गयी है। पचासों पीढ़ियों तक ये दोनों ऋपि और इनकी संतान लड़ते झगड़ते रहे हैं। अंगिरा ऋपि, जो ऋग्वेद के नवम मंडल के ऋपि हैं, के विपय में विष्णुपुराण (म० ४ । २।२) में लिखा है कि नभाग के नाभाग उसके अम्बरीप, उसके विरूप उससे पृप दश्व उससे रथीनर हुए। यह अंगिरा कुल है जो क्षत्रिय हो गया था । वामदेव और भारद्वान को मत्स्य पुराण (अ० १३२) में अंगिरा वंश की उस शाखा में बताया गया है जो बाम्हण हो गयी थी। गृत्समिद् के विषय में सायण का मत है कि वे. प्रथम अंगिरा कुल
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