६६ दूसरा अध्याय ] सरस्वती, नदी है। प्राचीन काल में अादि थार्य उसी के तट पर चिरकाल तक रहे हैं । स्वाभाविकतया वह देवी, सूक्तों की देवी बन गयी। वही पौराणिक काल में वाणी की देवी बन गयी है । हम आगे इसका उल्लख करेंगे। वैदिक देवताओं के उपर्युक्त विवरण से विद्वान पाठक यह समझ सकेंगे कि ज्यों ज्यों आर्यों ने प्रकृति से आदि काल में परिचय प्राप्त किया त्या त्यों वे उसके गुण गान एक सच्चे कवि की तरह करने लगे । उपयुक्त कल्पानाओं से इस में सन्देह नहीं रहता कि वे लोग कैसे सरल और सदाचारी रहते रहे हैं । इन सूक्तों में यह अद्भुत बात है कि कोई भी ऐसा दुष्ट प्रकृति का देवत्ता नहीं बताया गया है । न कोई नीच या हानि कर बात पायी जाती है । अतः यह बात स्वीकार करने में क्या आपत्ति हो सकती है कि इन सूक्तों से एक विस्तृत नीति की शिक्षा प्रकट हो रही है। ऋग्वेद में किसी देवता की पूजा, मंदिर या उपासना का जरा भी उल्लेख नहीं है । उससे यही प्रकट होता है कि गृहपति अपने घरों में होमाग्नि प्रगट करता और धन-धान्य-परिवार की सुख कामना से इन वेदमन्त्रों द्वारा उन देवताओं का यशोगान करता था। वे ऋषि जो ऋग्वेद में हैं पौराणिक पाखण्डी और बनावटी ऋपि नहीं हैं। वे ऐसे साँसारिक मनुष्य थे जिनके पास पशु के और अन्न के में बहुत सा धन रहता था । जिन के बड़े बड़े वराने थे, तथा काले असभ्यों से थार्यों की रक्षा के लिए समय-समय पर हलों को एक ओर रख भाले और तलवार तथा धनुषवाण लेकर युद्ध करते थे। यद्यपि योद्धा-पुरोहित और कृषक, ये तीनों ही गुण प्रायः प्रत्येक ऋपि में होते थे; परन्तु ऋग्वद के उत्तर काल के सूक्तों में हम ऐसे परोहितों को देखते हैं जो अन्यत्र भी व्यवसाय की दृष्टि से पौरोहित्य -
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