पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सरा अध्याय] 1 हो गयी । भाप्यकारों ने सवितृ ऊगते हुये या बिना उगे सूर्य को कहा है तथा सूर्य प्रकाशित सूर्य को । सूर्य की सुनहरी किरणों की उपमा सुन- हरी हाथों से दी गयी है। पुराणों में तो सवितृ का एक हाथ यज्ञ में जज गया तो वहाँ सोने का लगाया गया, ऐसा वर्णन है; किन्तु यही कथा जर्मन पुराणों में कुछ रूपान्तर से है। वहाँ सूर्य का हाथ 'बाघ खा गया ऐसा वर्णन है। इसी 'सवितु' का वह एक मात्र प्रसिद्ध सूक्त है नो उत्तर काल के ब्राह्मणों का पवित्र गायत्री मन्त्र है- 'तरसवितुर्वरेण्यम्भर्गो देवस्य धीमहिधियो योनः प्रचोदयात् ।' डा. विन्सन ने इसका अर्थ किया है- "हम लोग उस दिव्य सवितृ के मनोहर प्रकाश का ध्यान करते है जो हम लोगों को पवित्र कर्मों में प्रवृत्त करता है । (३-६२-१.) वृहस्पति-या ब्रह्मणस्पति ऋग्वेद में साधारण देवता है; परन्तु उपनिपदों में कदाचित वही महान् 'ब्रह्मन् की उपाधि पाने वाला है। वही बौद्धों के मत में उपकारी ब्रह्मा तथा पौराणिकों का जगत रचियता 'ब्रह्मा' है। ये वैदिक ब्रह्मा, वैदिक विष्णु और वैदिक रद, पौराणिक विदेव के रूप में उसी तरह अथाह हो गये हैं जैसे गंगोत्तरी की पवित्र जीण धारा बंगाल की खाड़ी के निकट हो गयी है। ऋग्वेद में देवियों के स्थान पर यदि कुछ है तो-उपस, और 'सर- स्वती' । 'सरस्वती' नदी थी जो पीछे वाणी की देवी बनी। उपस या प्रभात का जैसा मधुर और कवित्व मय वर्णन वेद में है वैसा और किसी का नहीं। सुनिए- २०-हे श्रमर उपा! तू हमारी प्रार्थना की अनुरागिनी है, है तेजस्विनी त किस पर दयालु है?'