[ वेद और उनका साहित्य लगभग सिन्धु या सरस्वती नदी तक हो चुका था। उत्तरा पथ मे भी उनका विस्तार कठिनाई से गंगा के किनारों तक ही हुआ था। नगर नही थे, नागरिकता नहीं थी, किन्तु सभ्यता की उच्च सीमा उनके रहन सहन में पहुँच गयी थी। कुटुम्चों को प्रथा प्रचलित थी थोर कुटुम्म का पिता उसका मुखिया माना जाता था । ये लोग विजयी, और कार्यदक्षता के प्रवल प्रेम पोर उसाहसे युक्त एवं श्रामोद प्रमोद के साथ तरुण जातीय-जीवन से परिपूर्ण थे। ये धन, प्रभुता थौर ग्वेतों से भरे पूरे एवं थानन्दित थे। इनने अपने बाहुबल मे नये अधिकार और नये देश को यहाँ के श्रादि निवासियो से छीन लिया था। उस समय यहाँ के प्रादि निवासी व्यर्थ ही इनके विरुद्ध अपना अस्तित्व बनाये रखने की चेष्टा करते थे। निदान यह युग इनका और यादि निवासियो के युद्ध का युग था । ये अपनी जय का अभिमान अपनी ऋवायों में प्रगट करते थे । प्रकृति में जो तेगान, उघल और लाभ दायक वस्तु होती थार्य उसकी प्रशंमा किया करते थे। उस समय पार्य लोग एक ही जाति के थे । इनमें कोई जाति भेद न था 1 हाँ, देश में श्रार्य और श्रादि निवासी इस रूप में जाति भेर अवश्य था । व्यवसाय भेद भी उन दिनों पर न था । कुछ बीघे भूमिका अधिकारी जो शान्ति के समय खेती करता और अपने पशुनों को पालता था वही युद्ध के समय अपने प्राणों की रक्षा करता था। वहो फिर ऋचाएँ भी बनाता था। उस समय न मन्दिर थे न मूर्तियाँ । यज्ञ के लिए पुगेहितों की भावश्यकता पड़ने लगी थी और कही कहीं राजा का भी निर्माण हो गया था । परन्तु न राजा की कोई जाति थी न पुरोहित की। वे लोग स्वतंत्र थे। बहुत से काम के जानवर पाल लिये गये थे। गाय, बैल, साँड़, बकरी, भेड़, सूथर, कुत्ते और घोड़े पालन हो गये थे। रोष, भेड़िये, । ॥
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