[ वेद थोर उनका साहित्य श्रादि को अधिभूत, और सूर्य चन्द्रादि को अधिदेव कहा गया है। मायण ने ऋक महिना भाष्य के प्रथम मन्त्र में बनाया है कि मन्त्र से जो ज्ञात हो वही देव है। "अतो दिव्यते इति देव. मन्त्रेण द्योत्यने इन्यर्थ." । परन्तु सायण ने म्पट रूप से अधिदैव अर्थ को हो लिया है। कलकत्ते के प्रसिद्ध वेद-विधान १० सत्यवत्त मामश्रमीजी का मन यह था कि वेदो का निर्माण प्रार्यावन मे ही हुया है। श्रपने पक्ष की पुष्टि में उन्होंने जो प्रमाण दिये है उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ करते है। चे ऋग्वेद के ५। ५३ । । मन्त्र को अति प्राचीन आर्यावर्त की मीमा वर्णन करने वाला कहते हैं । इस मन्त्र में रसा, कुभा, कुम, थौर सिन्धु इन धार नदियों का वर्णन है। 'रसा, उत्तर की बड़ी नदी, कुभा जिसे शायद कावुल नदी कहते हैं पश्चिम में, 'सरयू, पूर्व में, सिन्धु दक्षिण में, उसकी सीमा है। ऋद १०-७५ मे २१ नदियोंका नाम है। इकोस नदी वाला देश यायोक्तं ही है। श्राप श्रथ आदि के मन्त्र भी दिये है जिनसे वर्तमान भारतवर्ष और ग्राम पास के देशों का उल्लेख है, परन्तु भारतवर्ष, पार्यों का यादि निवास इसी एक प्रमाण पर स्थिर नहीं हो सकता। ये वणन तो भारत में आने पर पीछे से भी वेदों में बदाये हुए हो सकते हैं । ऋषि दयानन्द भार्यों का धादि स्थान तिन्वत बताते हैं जो भूगर्भ वेत्ताओं के मत का बहुत कुछ समर्थक है । जो हो, ऋग्वेद पुरुष सूक में (१०।१०) विराट् पुरुष से चेदों की उत्पत्ति मानी गयी है। यह विराट पुरुष हमारी तुच्छ सम्मति में असंरय वर्षों और असंख्य मनुष्यों की जाति के समूह का नाम ही है ।
पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/४०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।