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[३] धर्मियों का तो मैं प्रथम ही अक्षम्य गुनहगार हूँ। अतः क्षमा और दया की श्राशा त्याग कर मैं अभी से नत मस्तक होकर बैठ जाता हूँ। मैं परमेश्वर से यही चाहता हूँ कि वह मुझे स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचार प्रकट करने की सामर्थ्य दे और इसके लिए प्रहार सहने की शक्ति और सौभाग्य भी। संजीवन-इन्स्टीट्यूट दिल्ली, शहादरा श्रीचतुरसेन वैद्य