प्रथम अध्याय] २५ - वरुण के अक्षय कर्म हैं।" इस मंत्र में सिर के ऊपर स्थित सप्तर्पियों का वर्णन है। वे सप्तर्षि केवल उत्तरीय ध्रुव में ही सिर के ठीक ऊपर दीख पड़ते हैं। इसी प्रकार का वर्णन ऋग्वेद की १० । ८२ की १८ ऋचाओं का जो सूर्य-स्तुत सूक्त है उसकी दूसरी ऋचा के प्रथमाई में भी है । दूसरी विचारणीय बात ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर दीर्घ उपा का वर्णन है, जैसा कि धागे विस्तार से देखेंगे। ऋग्वेद ७ । ७६ । ३ में देखिये- "उपा को प्रकट हुए सूर्योदय तक अनेक दिवस व्यतीत हो गये। जैसे स्त्री प्रिय के चारों ओर घूमती है उसी तरह उया घूमती है३ ।" यह चारों ओर घूमती उपा कैसी? इसी प्रकार के प्रमाण ऋग्वेद ८।४१ ।३. १ । ११३। १०, ११ । १२ । १३, १ । १७४ । ७, २। १५ । ६, २ । २८ । ६, में मिलते हैं जिन में उपा को दीर्घ काल तक स्थित बताया गया है। इन मंत्रों में उपा का बहुवचन में वर्णन किया गया है। अथर्व वेद ७ । २२ । २ और तैत्तरीय संहिता का०४ प्र०३ अ० १५ में ३० भागों में घूमती हुई उपा का वर्णन है । ये उपाऐं प्रतिदिन होनेवाली उषा कदापि नहीं बल्कि उत्तरीय ध्रुव में होनेवाली दो मास तक की उपा है जिसे अवश्य ही इन सूक्तों के ऋपियों ने देखा था। इसके सिवा ऐतरेय ब्राह्मण २।२।५ में लिखा है कि अग्नि- प्टोम मादि यज्ञों में प्रातःकाल पत्तियों के बोलने के पूर्व तक ही प्रातरनु- वाक् की सहस्त्र ऋचाओं का पाठ करे। भला सहश्र ऋचाएँ १ था१॥ घंटे १ अमीय ऋक्षा निहितास उच्चाः नक्तं दधे कुहचिदिवेयुः । अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशचन्द्रमा नक्त मेति । २ ससूर्यः पर्युस्वरांस्येन्द्रोववृत्यायवेव चक्रा । ३ तानीदहानि बहुलान्यासन्या प्राचीन मुदिता सूर्यस्य । यतः परि- जार इवाचरन्त्युपो ददृक्षेन पुनर्यतीव ।
पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/३०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।