po [ वेद और उनका साहित्य . - है। अथर्व १० । ४ ! | २०॥ शतपथ १४ । । ४ । १०, मनु १ । १३, १२ । ४ से १२। १०० नक. निरू अ०२, प्रादि स्थलों के प्रवचनों से उपर्युक्त पक्ष का समर्थन किया जाता है। दूसरा मत दार्शनिक है । इस मत मै घेद अनादि और नित्य नहीं माने जाने, उनकी उत्पत्ति हुई है ऐसा माना जाता है। इसकी पुष्टि में सारा । ४५ से ११ तक, योग ५ । २४ [व्यास भाष्य और वाचस्पनि मिश्र का तर्क ] न्याय २।६७, वैशेषिक १।१।३, वेदान्त १।३। मीमांसा १, १,१०, उपस्थिन किये जाते है। तीसरा मत निरक्त का है। वह लगभग प्रथम मत से सहमत चौथा कौम-मत है जो कहता है-वेद निरर्थक है, उनके अर्थ स्वतंत्रता से हो ही नहीं सकते । निरत्तकार ने इस मत का विरोध किया है। पाँचवों याज्ञिक मत है। इसका मंतव्य यह है कि वेद किसी एक युग में किन्ही खास चार ऋषियों के हृदयों में नहीं प्रकट हुए, किंतु जिस मंत्र का जो ऋपि है उसी के हृदय में प्रकट हुए है और भविष्य में भी होते रहेगे। अभी बंद संपूर्ण नहीं हो गये। इस मत वाले वेद के देवनानों को दैतन्य मानते है । शंकरस्वामी इसी मत के पुरुप हैं। ऋग्वेद का ७१ । ११ का मंत्र तथा ऋ० १० । ६० । १६ का मंत्र इस मत की पुष्टि में दिया जाना है। इसी मत की पुष्टि बाम्हण ग्रंथ करते है, परंतु निराकार इनका विरोध करता है। छठा मन ऐतिहासिक है। यह वेद में ईश्वरीय ज्ञान न मान कर उनमें प्रार्य सभ्यता का प्राचीन इतिहास मानता है। अपनी पुष्टि में यह पक्ष ऋग्वेद के 1। ३२ ., १।३२।१, ३ । ३३ । १, ३ । ३३ । ६, १. । ह८।५, १० । ९८ ६, ७ । ३७,७।४।८, १ । १०५ । १, ।। १२६ । ७,३ । १३ । १४।४।३०। १८ धादि मंत्र उपस्थिन करता है। माता मत पाश्चाय विद्वानों का है। इस मत वाले वेदों से धार्यों के श्रादि और उद्गम स्थानों की खोज करते हैं। इस मत वाले अपनी
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