पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/२०७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नवा अध्याय] खाने की इच्छा से जो पशु हनन होता है-वह हिंसा है। वेदोक्त पशु- हिंसा में देवताओं के लिये मांसाहुतियाँ समर्पित करना ही मुख्य उद्दिष्ट होता है। हुतशेप मांस का भक्षण करना भी विधिविहित है। अतः शास्त्राज्ञा रक्षण करने की इच्छा से ही (?) इस हुतशेप का मांस भक्षण किया जाता है।" "वर्णाश्रम विदित होने ही से यज्ञीय पशु हिंसा की जाती है। सोम भाग में पशु हिंसा के विना कर्म पूर्ण ही नहीं हो सकता। जो निंदक अविचार से तथा वेद शास्त्र की मर्यादा का उल्लेख न करके इस प्रकार के सोमयागादि वैदिककर्मों का उपहास करते हैं-उनसे यज्ञकर्ता लोग कम अहिंसावादी हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हिंसा परमधर्म अवश्य है, पर उसमें भी अपवाद है । क्षत्रिय जिस प्रकार मृगया और युद्ध में हिंसा करते हैं, उसी प्रकार यज्ञकर्ता यज्ञ में विधि के कारण पशु हनन करते हैं। यज्ञ में जिस रीति से पशु हनन होता है वह शस्त्रवध की अपेक्षा कम दुखदाई है। उत्तर दिशा की ओर पैर करके पशु को भूमि पर लिटाना चाहिये। पश्चात् श्वासादि प्राणवायु वन्द करके नाक मुख आदि बन्द करे। इत्यादि सूचनाएँ शापिता को कही हैं। 'उदीचीनाम् अस्य पदो निदधात् । अंतरेयोप्माणं वारयतात् । ऐ० प्रा०६ । ७ । तथा- श्रमायु कृण्वतं संज्ञयतात् । ते० प्रा० ३ ॥ ६ ॥ ६ ॥ श्रर्थात्-पशु का हनन उसे न्यून से न्यून दुःख देते हुए करना । चाहिये।