वेद और उनका साहित्य + बलिदान की संख्या यज्ञ के अनुसार होती थी। अश्वमेघ में सब प्रकार के बलि अर्थात् पालतू और जंगली जानवर थलचर, जलचर, उड़ने पाले, तैरनेवाले जानवरों को मिलाकर ६०१ से कम न होने चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्यों-ज्यों हिंसा बढ़ी त्यों-त्यों यज्ञ की हिंसा का विरोध और उसके प्रति घृणा का प्रदर्शन भी होने लगा था। महाभारत में लिखा है:- • वेद में जो लिखा है कि अज से यज्ञ करे सो धज का अर्थ बीज है--बकरा नहीं । गायें श्रवध्य हैं। इन्हें नहीं मारना चाहिये।
- हिंसा धर्म नहीं है।"+
"वह कोई धर्म ही नहीं जहाँ पशु मारे जायें। चार्वाक सम्प्रदाय वालों ने—जिनका प्रादुर्भाव उन्हीं दिनों हुआ था जब कि खूब पशु हिंसा चल रही थी-उपहास से लिखा था- पशु के मारने से ही यदि स्वर्ग मिलता है तो यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार कर हवन कर डालवा । मत्स्य पुराण अध्याय १३ में यज्ञ के विषय में मनोरंजक वर्णन पाया जाता है। • अजैर्यज्ञघु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः अज संजानि बीजानि छागन्नो हन्महथा (महा.-अनुशा) + अन्या इति गवांनाम, क एतान् इन्तुमर्हति 17 हिंसा धर्म उच्यते, नैष धर्मः सतां देवा यत्र यष्येत वै पशुः । पशुन्निनहत. स्वर्ग ज्योतिष्ट गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मास हिस्थते ।