१६६ [वेद और उनका साहित्य C मूत्र कहे जाते हैं। उन सूत्रों में ऋग्वेद के दो, सामवेद के तीन, कृष्ण यजुर्वेद के चार; धौर शुक्ल यजुर्वेद के पुरे-पूरे प्राप्त हैं । बौद्धकाल तक ये मुत्र बनते रहे है, जब कि यज्ञ की हिंपा ज्वाला अन्धाधुन्ध धधक रही थी। इस मांस भक्षण का प्रभाव उपनिषदों तक में हो गया। बृह दारण्यक उपनिषद् मास मे लिखा है कि जो कोई यह चाहे कि मेरा पुन विद्वान्-विजयी और सर्व वेदों का ज्ञाता हो--वह बैल का मांस चावल के साथ पकाकर घी डालकर खाय । अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विजिगीतः समिती गमः सुभूषिता वाचं भाषिता जायेत सर्वान्वेदानुबीन सर्वमायुरियादिति मा ५ सौद पाचयिन्वा सविधमन्तं मशिनयातामीश्वरी जनपीत वा श्रीक्षणेन वा झर्षभ- गा। वृह० उ० ८४१८ श्रौत्रसूत्रों में दो प्रेकार के यज्ञों का वर्णन है। एक हविर्यज्ञ-जिनमें चावल, दूध, घी, मांस यादि का अर्घ्य दिया जाता है । दूसरा सोम यज्ञ जिसमें सोमरस का अध्यं दिया जाता है। हृवियज्ञ ये हैं-१ अग्न्याधान, २ अग्निहोत्र, ३ दशपूर्णमारा, ४ श्रग्रयण, ५ चातुर्माख, ६ विरुध पशुवन, ७ मौवामणि। सोमयज्ञ ये हैं-१ थग्निष्टोम, २ श्रस्यग्निष्टोम, ३ उक्थ्य, ४ पोड- सिन, ५ वाजपेय, ६ थतिरात्र, ७ याप्सोयाम । इसके सिवाय अन्य छोटी-छोटी क्रियायें जैसे-अष्टका जो बाड़े में की जाती थी। पार्वण-जो शरद पूर्णिमा को होती थी। श्राद्ध- पितरों को बलिदान । अमदायणी-जो अगहन में की जाती थी । चैत्री- जो चैत्र में की जाती थीं। थाश्वपुगी-जो असोज में की जाती थी। इनमें की बहुतसी धार्मिक क्रियाएँ और उनकी तिथि थामफल स्यौहार बन गये हैं। इन पूजा और पक्षों को जोकि सर्व साधारण के लिये 1
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