नवा अध्याय . लिए इस श्रादर्श के अनुपार सारे संसार के महाराजा की भाँति राज. तिलक दिया जाता है । और वे सम्राट् कहलाते हैं । जब ब्राह्मण लोग क्रिया संस्कारों को बढ़ाये नाते थे थौर प्रत्येक क्रिया के लिए स्वतन्त्रतानुसार कारण रतलाये जाते थे, तब क्षत्रिय लोग जिनके सन्मुख राज्य व्यवस्था की कठिन समस्याएँ थीं और नो अधिक विचारशील और अनुभवी हो गये थे-ब्राह्मणों के इस थोथे- पारिइत्यादर्प से ऊब गये थे । विचारवान और सच्चे लोग यह विचारने लग गये थे कि क्या धर्म केवल इन्ही क्रिया संस्कारों और विधियों को सिखला सकता है ? वे लोग यद्यपि इन क्रिया संस्कारों के बाडम्बरों का खुला विरोध नहीं कर सकते थे- और वे इन संस्कारों को वैसे ही धाडम्बर से करते भी थे--परन्तु उन्होंने अधिक पुष्ट विचार प्रचलित किये-और प्रात्मा के उद्देश्य और ईश्वर के विषय में खोज की। ये नये और कृतोद्यम विचार ऐसे वीरोचित, पुष्ट, और दृढ़ थे कि बाह्मण लोगों ने बोकि अपने ही विचार से अपने को बुद्धिमान समझते थे, अन्त को हार मानी और क्षत्रियों के पास इस नये समुदाय के पाण्डित्य को सम. झने पाये । उपनिषद् इस कथन की पुष्टि स्वरूप है जिनका उन्लेख श्रागे किया मायगा । कभी कभी राजाओं से और इन पुरोहितों से कर्म- काण्ड के विषय पर भी विवाद होता था। जिसका एक मनोरंजक उदा. हरण शतपथ ब्राह्मण (११ प्र, ४, ५। ११ । ६ । २१) में है। विदेह के जनक की भेंट कुछ ऐसे ब्राह्मणों से हुई नो अभी श्राये थे । ये श्वेतकेतु, थारुणेय, सोमशुष्क, सत्ययज्ञि और याज्ञवल्क्य थे उसने उनसे पूछा:-- "तुम लोग अग्निहोत्र जानते हो ?" तीनों ब्राह्मणों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उत्तर दिया। पर किसी का उत्तर ठीक न था । याज्ञवल्क्य का उत्तर यथार्थ वात के बहुत निकट था । Orन - - ठीक नहीं था ! ननक ने उनसे कहा- .
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