वेद और उनका साहित्य है-मालूम होता है, बाह्मणों के काल में प्राचीन पंजाब भूला हुआ था--पंजाब के किसी भी राजा का ब्राह्मणों में जिक्र नहीं है। यजुर्वेद जो यज्ञों का मल स्तम्भ है, उसका नवीन संस्करण जनक के दरबारी विद्वान् याज्ञवल्क्य वाजसनेह ने किया है। उसी के नाम से शुक्ल यजुर्वेद-वाजसनेही संहिता कहाती है। ये याज्ञवल्क्य जनक की सभा के प्रधान पुरोहित थे—इन्होंने पुराने क्रम को सुधारने और मन्त्रों को व्याख्या से अलग करने के लिये ही एक नई वाजसनेही सम्प्रदाय स्थापित की थी। धौर फलस्वरूप एक नई संहिता और एक नवीन प्रसिद्ध बाह्मण शतपथ का निर्माण हुथा। पीछे बताया जा चुका है कि याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का जो नवीन संस्करण सम्पादन किया था-वह शायद उनके जीवन काल में सम्पूर्ण नहीं हुया था । वह अनेक मनुष्यों ने बहुत दिनों में पूर्ण किया था । इन मनुष्यों का समुदाय एक सम्प्रदाय का रूप पकड़ गया था। और बहुत काल तक वह अपनी भित परिपाटी पर यज्ञ कार्य करता रहा । इन सब बातों से यह परिणाम निकलता है कि वैदिक यज्ञों का विधान वास्तव में ऋग्वेद के काल का अत्यन्त प्राचीन विधान नहीं- प्रत्युत्त उससे बहुत धाधुनिक काल का है। सुदास बाद--कुरु और पांचाल दिल्ली ता कन्नौज तक भाग याये थे-चौर प्रबल राज्य बना चुके थे, और काशी तथा विदेहों के तथा कोशलों के राज्य भी विस्तार पा गये थे। ये यज्ञ सजायों को किस तरह उपाधि दान देते थे—इसका वर्णन एतरेय ब्राह्मण के एक वाक्य से देते हैं:- जब कि के युद्धों के सत्र पूरब दिशा में कुरुनों ने सारे संसार का राज्य पाने के लिए ३१ दिन तक इन्हीं तीनों , यजु की भूचायों और उन गम्भीर शब्दों से (जिनका वर्णन भी किया जा चुका है) उस (इन्द) का प्रतिष्ठा- पन किया । इसीलिए पूर्वी जातियों के सब रानाधों को देवताओं के
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