नवा अध्याय] का हुश्रा। सबसे प्रथम जब पार्य लोगों ने भरतखंड में अपनी सभ्यता विस्तार किया था, तब सभ्यता के उन्नत होने के साथ-साथ ही छोटे-छोटे माएडलिक राज्य बन गये । कुछ सुरद परिवार अपने पास पास के मनुःयों और स्थानों के स्वामी बन बैठे । परन्तु इस प्रकार के मांडलिक राज्य प्रायः अशान्त और उत्तरदायित्व शून्य थे-एवम् संगठन रहित थे- परस्पर उनकी स्पर्धा चलती थी। तत्कालीन मनस्वी लोगों ने इस सामाजिक संगठन की त्रुटि को समझा और उन्होंने प्रबल मंडलाधिकारियों को प्रोत्साहित करके अयोग्य तथा कमजोर राज्यों को अपने श्राधीन बना लेने को धर्म का स्वरूप दिया । राजसूय यज्ञ और अश्वमेध यज्ञों का प्रारम्भ यहीं से हुआ। राजसूय यज्ञ में राजा आस पास के यथा सम्भव रानाओं पर व्यर्थ ही चढ़ाई करके उन्हे परास्त करके अपने प्राधीन बनाते, उनसे कर लेते- और फिर अपने यज्ञ में बुलवा कर उन पर अपना प्रभुत्व बनता पर प्रकट करते । इन यज्ञों का वास्तव में वही प्रभाव होता था जो अङ्गरेनों के उन दरवारों का -जो दिल्ली में लार्ड कर्जन और सम्राट बार्न पञ्चम की अध्य. क्षता में हुए थे 1 और जिसमें समस्त राजाओं को अप्रकट रूप में अगरेजी साम्राज्य की श्राधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी। लार्ड कर्नन का राजायों से अपना चुगा उठवाना भी पिछले रानसूय यज्ञों के पराजित राजाओं की याद दिलाता था। सलनैतिक संगठन की दृष्टि से ये यज्ञ और अकारण विनय पराजय श्रावश्यक थी । और यही कारण थे कि प्रतापी राजा लोग बारम्बार ऐसे यज्ञ करते थे। एक तरफ इन यज्ञों में जहाँ कमजोर राजाओं का सर्वत्व हरण किया जाता था-वहाँ ब्राह्मणों और ऋत्विगों को सर्वस्व दान भी किया जाता है। अनेक रानाओं ने सर्वस्व दान करके सत्पात्र घर में
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