[ वेद और उनका साहित्य के किसी न किमी वेद से कुछ सम्बन्ध प्रारम्भ में अवश्य था । धर्मसूत्रों के अत्यन्त प्राचीन काल में बताये जाने का यही प्रमाण है कि सूत्रकाल भारम्भ में यास्क प्राचार्य ने जिन धार्मिक नियमों के अवतरण दिये हैं वह सूत्रों के ढंग पर है, अवश्य ही उस समय दो एक धर्मसूत्र बन चुके होंगे। श्रापस्तम्ब धर्म सूत्र अभीतक सबसे अधिक सुरक्षित है, इसमें न तो प्राचीन सम्प्रदायवाले परिवर्तन करने पाये और न वर्तमान सम्पादकों ने ही कोई मिलावट की है। श्रापस्तम्ब कल्पसूत्रके तीन अभ्यायों में से अहाईस और उन्तीसवे अध्यायों में यही धर्मसूत्र है, इसमें विशेष करके वैदिक विद्यार्थी के कर्तव्य, गृहस्थ के कर्तव्य, निषिद्ध भोजन, शौचाचार प्रायश्चित, विवाह, उत्तराधिकार और अपराध के विषयों का वर्णन है, उत्तर प्रान्तवालों की कुछ बातों को बुरा कहने से जाना जाता है कि इसका सम्बन्ध दक्षिण से है, जहाँ प्राचीनकाल में इस शाखा का प्रचार था। इसको भाषा पाणिनी से पहिले की होने के कारण से बुलर साहिब ने इसका समय ईसा से ४०० वर्ष पूर्व माना है। हिरण्य केशीधर्मसूत्र का इस ग्रन्थ से बहुत निकट सम्बन्ध है, क्योंकि पढ़ने पर दोनों में कुछ अधिक अन्तर प्रतीत नही होता, इस सम्बन्ध में यह ऐहिर है कि आपस्तम्बो से अप्रसन्न हो कर हिरण्यकेशी ने एक नयी शाखा की स्थापना कोनकन देश में की जो वर्तमान गोवा के समीप है, इस पार्थक्य का समय अधिक से अधिक १०. ईस्वी हो सकता है। हिरण्यकेशी ब्राह्मण का वर्णन एक पापाण लेख में पाया जाता है, हिर- रायकेशी कल्पसूत्र के उनतीस अध्यायों में से छब्बीसवें,ौर सत्ताइपर्व, अध्यायों में यह धर्मसूत्र है। तीसरा धर्म सूत्र बौधायन का है। इसको लिखित प्रज्यों में धर्म- शास्त्र कहा गया है, इस शाखा के कल्पसूत्र के इसका स्थान,इठना निश्चय नहीं है, जैसाकि पहले दो का है। आपस्तम्ब धर्मसूग्न से इसकी
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