[वेद और उनका साहित्य शौनक के सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखनेवाला अथर्ववेद प्रातिशाण्य इस प्रकार के अन्य अन्यों की अपेक्षा अधिक व्याकरण पूर्ण है। एक साम प्रातिशाण्य भी है, पुष्पसूत्र सामवेद के उत्तरगण का एक प्रकार का प्रातिशाख्य है, सामवेद के मन्त्रों के गायन के ऊपर एक और ग्रन्थ पञ्चविधसूत्र भी है। इन प्रातिशारयों का महत्व दो प्रकार से है, प्रथम तो यह कि इनमें भारत में व्याकरण के अध्ययन का इतिहास छिपा हुआ है, जोकि जहाँ तक हम समझते हैं प्रातिशाख्यों के साथ ही बारम्भ होता है । दूसरे इनका महत्व इस बात में है कि यह अपने साथ में भी संहितायों के उसी रूप में होने की गवाही देते हैं, जिसमें कि वह हमको श्राज मिलते हैं; ऋग्वेद प्रातिशाख्य पर विचार करने से पता चलता है कि ऋक्-प्रातिशाख्य के समय ऋग्वेद न केवल दस मण्डलों में ही विभक्त था, किन्तु उसके मंत्रों का भी वही क्रम था जो हमको अाज मिलता है। यह प्रातिशाख्य वेदांग शिक्षा के सब से प्राचीन रूप हैं, उनके अति- से नवीन ग्रन्थ भी हैं, जिनका नाम शिक्षा है और जो अपने को भारद्वाज, च्यास, वशिष्ट और याज्ञवलय श्रादि बड़े-बड़े ऋषियों की रचना बतलाते हैं। यह ठीक उसी प्रकार प्रातिशाख्यों का अनुसरण करते हैं जिस प्रकार बाद में स्मृतियों ने धर्मसूत्रों का अनुगमन किया, इनमें से कुछ शिक्षा प्राचीन भी है और उनका किसी न किसी प्राति- शाय से भी सम्बन्ध है. उदाहरणार्थ, व्यास शिक्षा का सम्बन्ध तैत्ति- रीय प्रातिशाख्य से है, किन्तु थन्य ग्रन्थों का किसी प्रकार से भी महत्व नहीं है। प्रकाशित शिक्षा ग्रन्थ (१) ऋग्वेद-प्रातिशाच जर्मन मनुवाद सहित, सम्पादक मैक्समूलर Leipzig १८५६.६९ , रिक्त वहुत 1
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