पाठवा अध्याय ] १२६ अतएव संहिता पाठ और पद पाठ शिक्षा सम्प्रदाय के सबसे प्राचीन कार्य हैं. इस विषय के ग्रन्थों में सब से प्राचीन अन्य प्रातिशाख्य है, लिनमें ऐसे नियम हैं कि उनकी सहायता से कोई भी संहितापाठ से पद पाउ बना सकता है, अतएव उनमें उच्चारण, जोर देने, शब्द के बनाने और वाक्य में के शब्द के श्रावश्यक और अन्तिम अंश पर स्वर का उतार चहाव, स्वरों को लम्बा करने, सारांश कि संहिता को पूर्ण रूप से पाठ करने के ढंग पर प्रकाश डाला गया है। वेदों की प्रत्येक शाखा के पास इस प्रकार के अन्य होते थे, अतएव इस विषय का नाम प्रतिशाख्य (एक शाख के लिये पाठ्य पुस्तक) पड़ गया। यह प्रातिशाख्य पाणिनि से प्राचीन समझे जाते हैं । संभवतः यह कहना अधिक ठीक होगा कि पाणिनि ने वर्तमान प्रतिशाख्यों का प्रयोग एक अधिक प्राचीन रूप में किया था, उदाहरणार्थ, नत्र कभी वह वैदिक सन्धि को लेता है वह सदा ही उनके वर्णन में अधूरा रहता है, जब कि प्रातिशाख्य कौरविशेष कर अथर्ववेद का प्रातिशाख्य वैयाकरणों की पारिभाषिकताओं के आधीन हैं। सब से प्राचीन ऋग्वेद प्रतिशाख्य है जो शौनक का कहा जाता है। (यही शौनक भावनायन का प्रयापक समझा जाता है, इस विस्तृत ग्रन्थ में तीन काण्ड हैं । यह प्रातिशाख्य पद्य में है। संभवतः यह किसी प्राचीन सुत्र अन्य का रूपान्तर है क्योंकि अनेक ग्रन्थों में इसको सूत्र भी कहा गया है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य सूत्र अपने अनेक अध्यापकों के नामों के कारण रोचक बन गया है, इसमें लगभग बीस अध्यापकों का वर्णन किया गय है। वाजसनेय प्रातिशाख्य सुत्र अपने को कात्यायन रचित बतलाता है, पूर्व श्राचायों में यह शौनक का नाम भी लेता है, इसमें पाठ अध्याय है, प्रतिशसूत्र इस प्रातिशप का उपसंहार है।
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