१५२ [द और उनका साहित्य छान्दोग्य उपमिषद् ५, १३, १५, १६, १०, २४, शतपथ ब्राह्मण ३, २, ४८, तैत्तिरीय उपनिषद् , ब १२ थादि) छान्दोग्य उपनिषद् के निम्नलिखित वाक्य से उस समय की कुछ धातुयों का पता लगता है:- "जिस तरह कोई सोने को लवण (सोहागे) से जोडता है, चांदी को सोने से, टीन को चाँदी से, जरते को टीन से, लोहे को जस्ते से काठ को लोहे अथवा चमड़े से . । ऐतरेय ब्राह्मण ( ८, २२ ) में लिखा है कि अत्रि के पुत्र ने दस हजार हाधियों और दस हजार दासियों को दान दिया था जोकि “गले में प्राभूषणों से अच्छी तरह से सज्जित थी और सब दिशाओं से लाई गई थी," पर यह बात स्पष्ट बहुत बड़ा चढ़ा कर लिखी गरी है। हस्तिनापुर और काम्पित्त्य और अयोध्या और मिथिला के निवा- सिषों के, तीन हजार वर्ष पहिले के सामाजिक जीवन का, अपनी आँखों के सामने चित्र खींचना चाहिये । उस समय नगर दोबोरों से घिरे रहते थे, उनमें सुन्दर सुन्दर भवन होते थे और गलियाँ होती थीं। वे भाज- कल के मकानों और सड़कों के समान नही होते थे वरन् उस प्राचीन समय में सम्भवतः बहुत ही अच्छे होते थे। राजा का महज सदा नगर के बीच में होता था जहाँ कोलाहल युक्त सर्दार, असभ्य सिपाही, पवित्र साधु सन्त और विद्वान् पुरोहिस प्रायः पाया जाया करते थे। बड़े बड़े अवसरों पर लोग राजमहल के निकट इकटे होते थे, राजा को चाहते थे, मानने थे, और उसकी पूजा करते थे धौर राजभक्ति से बढ़कर और किसी बात को नहीं मानते थे । सोना, चांदी और जवाहिर, गाडी, घोड़ा खचर और दास लोग और नगर के घासपास के ग्वेत ही गृहस्थी और नगर वासियों का धन थोर सम्पत्ति थे । उन लोगों में -
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