सातवाँ अध्याय] जाति में प्राचीन अथवा नवीन समय में भी नहीं हुई। हिन्दुओं के धर्म के अनुसार अच्छे काम व धर्म की क्रियाओं के करने से केवल उनको उचित फल और जीवन में सुख ही मिलता है, पर ईश्वर में मिलकर एक हो जाना, यह केवल सच्चे ज्ञान ही से प्राप्त हो सकता है। नव विद्यार्थी लोग इस तरह से किसी परिपद् में अथवा गुरु से उस की परम्परागत विद्या सीख लेते थे तो वे अपने घर आकर विवाह करते थे और गृहस्थ होकर रहने लगते थे । विवाह के साथ ही साथ उनकी गृहस्थी के धर्म भी प्रारम्भ होते थे और गृहस्थ का पहला धर्म यह था कि वह किसी शुभ नक्षत्र में होमाग्नि को जल दे, सबेरे और सन्ध्या के समय अग्नि को दूध चढ़ाया करे, दूसरे धर्म के धौर गृहस्थ के कृत्य किया करे, और सबसे बढ़ चढ़कर यह कि अतिथियों का सत्कार किया करे । हिन्दुओं के कर्तव्य का सार नीचे लिखे सेऐ वाक्यों में समझा . गया है। 57 "सत्य बोलो ! अपना कर्त्तव्य करो ! वेदों का पढ़ना मत भूलो ! अपने गुरू को उचित दक्षिणा देने के पीछे बच्चों के जीव का नाश करो ! सत्य से मत टलो ! कर्तव्य से मत टलो ! हितकारी बातों की उपेक्षा मत करो ! बड़ाई में प्रालस्य मत करो ! वेद के पढ़ने पढ़ाने में श्रालस्य मत करो!" "देवताओं और पितरों के कामों को मत भूलो ! अपनी माता को देवता की नाई मानो ! अपने पिता को देवता को नाई मानो ! अपने गुरु को देवता की नाई मानो ! जो काम निष्कलंक हैं उन्हीं के करने में चित्त लगायो, दूसरों में नहीं ! लो नो अच्छे काम हम लोगों ने किये हैं उन्हें तुम भी करो !' (तैत्तिरीय उपनिषद १. २)
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