१२० [ वेद और उनका साहित्य देवता, पितृ थौर भिन्न भिन्न तरह के जीवों के विषय में, और उस सर्व म्यापी ईश्वर के विषय में जिसे कि हम सब चीजों में देखते हैं। पर विद्या का स्थान सिर्फ सभा ही नहीं थी। विद्या की उन्नति के लिये परिषद् अर्थात् ब्राह्मणों के विद्यालय थे, जोकि योरुप के विद्यालयों का काम देने थे और इन परिपदों में युवा लोग विद्या सीखने जाते थे। वृहदारण्यक उपनिषद् (६, २) में इसी प्रकार से लिखा है कि श्वेतकेतु वद्या सीखने के लिये पंचालों की परिपद् मे गया। प्रोफेसर मैक्समूलर ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में ऐसे वाक्य उद्धन किये है जिनसे जान पड़ता है कि इसके ग्रन्थकारों के अनुसार परिपद् में २१ ब्राह्मण होने चाहिए जो दर्शन वेदान और स्मृति गात्रों को अच्छी तरह जानते हों पर उन्होंने यह दिखलाया हैकि ये नियम पीछे के समय की स्मृति की पुस्तको मे दिये है और ये ऐतिहासिक कान काल में परिपदों का वर्णन नहीं करते । पराशर कहता है कि किसी गाँव के चार या तीन योग्य ब्राह्मण भी जो वेद जानते हों और होमाग्नि रखते हों, परिषद् बना सकते है। इन परिषदों के सिवाय अकेले एक एक शिक्षक भी पाठशाला स्थापित करते थे जिनकी तुलना योरोप के प्राइवेट स्कूलों से दी जा सकती है और इनमे बहुत से बहुधा देश के भिन्न भिन्न भागों से विद्यार्थी लोग इक हो जाते थे। ये विद्यार्थी रहने के समय तक दास की नाई गुरु सेवा करते थे और बारह वर्ष बाद इससे भी अधिक समय के पीछे गुरु को उचित दक्षिणा देकर अपने घर अपने लालायित सम्बन्धियों के पास लौट जाते थे। उन विद्वान् बाहाए लोग के पास भी जो वृद्धावस्था में संसार से जुदा होकर वनों में ना असते थे, बहुधा विद्यार्थी लोग इकडे हो जाते थे और उस समय की अधिकतर कल्पनाएँ इन्ही बन में रहनेवाले विरक्त साधु और विद्वान् महात्माओं की है। इस तरह से हिन्दू लोगों में विधा और ज्ञान की जितनी कदर थी उतनी कदाचित् किसी दसरी
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