[वेद और उनका साहित्य उस के वैश्य के 'T दूसरी बा लीपरी पीदी में वह पूरी तरह वारमल्ल होने के योग्य हो जाती है । " जब वह वैश्य को भाग खा लेता है तो गुणवाली सन्मान होगी जो दूसरे राजा को कर देगी" और दूसरी था नीमरी पीढ़ी में वे लोग वैश्य जाति के होने के योग्य हो जाते है। जब वह शूद्ध का भाग ले लेता है तो उसकी पन्तान में "शुद्र के गुण होंगे, उन्हें नीमा उच्च जातियों की मेधा करनी होगी और वे अपने मालिकों की इच्छानुसार निकाल दिये जाने और पीटे जारी " और 'दूसरी वा तीसरी पीढ़ी में वे शूद्रों की गति पाने के योग्य हो जाते हैं।" किसी पहले के अध्याय में हम दिखला चुके हैं कि वेदों के राजा जनक ने याज्ञवश्य को ऐसा ज्ञान दिया कि जो इसके पहिले ब्राह्मण लोग नहीं जानते थे और तब से वह ब्राह्मण समझे जाने लगे। (शतपथ माह्मण ११, ६, २.) ऐतरेय बाहरण (२,१) में इलूपा के क्यप का वृत्तान्त दिया है, जिसमें उपे, और ऋषियों को यह कह कर सत्र से निकाल दिया था कि “एक धूतं दासी का पुत्र, जोकि ब्राह्मण नहीं है, हम लोगों में कैसे रह कर दीतिन होगा। परन्तु कवप देवताओं को जानता था और देवता लोरा कवप को जानते थे और इसलिए वह पियों की श्रेणी में हो गया । इसी प्रकार से छान्दोग्य उपनिषद् (१) में सत्यकाम सबाला की सुन्दर कथा में यह बात दिवसायी गयी है कि उन दिनों में सच्चे थोर विद्वान् लोगों ही का सब से अधिक श्रादर किया जाता था और वे हो सब से ऊँची जाति के समझे वाले थे। यह कथा अएमी सरलता और काव्य में ऐमी मनोहर है कि हम उम्पको यहाँ लिख देना ही उचित समझते हैं:- (१) जवाल के पुत्र सत्यकाम ने अपनी माता को बुलाकर कि 'हे माता, मैं ब्रह्मचारी हुधा पक्षमा हूँ। में किस वंश का हूँ। (१) उसने उसमे कहा पुन्न" मैं नहीं मानती है कि न किस यंश का है। मेरी युवावस्था में बप मुझे बहुत करके दासी का काम " --
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