[सातवां अध्याय ] १४३ वे बराबर इस बात को लिखते हैं कि पहिले पहल जातियों नहीं थी और वे बहुत ही अच्छा तथा न्यायमंगत अनुमान करते हैं कि फाम काल और व्यवसाय के भेद के कारण पीछे से जाति भेद हुया । थय हम इस प्रसंग को छोड़ कर इस बात पर थोड़ा विचार करेंगे कि ऐतिहासिक कास्य काल में जाति भेद किस प्रकार या । हम ऊपर कह चुके हैं पहिले पहल जाति भेद गंगा के तटों के प्रांत - वासियों ही में हुश्रा । परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि इस गति के बुरे फल तब तक दिखायी नहीं दिये और न तय तक दिखायी दे ही सकते थे जब तक कि हिन्दू लोगों के स्वतन्त्र जाति होने का अन्त नहीं हो गया । ऐतिहासिक काव्य काल में भी लोग ठीक ब्राह्मणों क्षत्रियों की नाई धर्म विषयक ज्ञान और विद्या सीखने के अधिकारी समझ जाते थे और ब्राह्मण क्षत्रियों और वैश्यों में किसी किसी अवस्था में परस्पर विवाह भी हो सकता था। इसलिए प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास पढ़ने- वाले इस जातिभेद की रीति के श्रारम्भ होने के लिए चाहे कितना ही अफसोस क्यों न करें पर उन्हें याद रखना चाहिए कि इस रीति के बुरे फल भारतवर्ष में मुसलमानों के आने के पहिले दिखायी नहीं पड़े थे। श्वेत यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में कई व्यवसायों के नाम मिलते हैं जिससे कि उस समय के समाज का पता लगता है जिस समय इस थध्याय का संग्रह किया गया था । यह बात तो स्पष्ट है कि इसमें जो नाम दिए हैं वे जुन्दे-जुदे व्यवसायों के नाम हैं कुछ जुदी-जुदी नातियों के नहीं है। जैसे २० और २२ कण्डिका में भिन्न-भिन्न प्रकार के चोरों का उल्लेख है और २६ वी में घोड़ सवारों, सारथियों, और पैदल सिपाहियों. का । इसी प्रकार से २७ वी करिडका में जो बदइयों, रथ बनानेवालों कुहारों और लुहारों का उल्लेख है वे भी भिन्न-भिन्न कार्य करनेवाले हैं कुछ भिन्न जातियाँ नहीं है । उसी कण्डिको में निपाद और दूसरे दूसरे लोगों का भी वर्णन है । यह स्पष्ट है कि ये लोग यहाँ की भांदि देशवासिनी ।
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