तदु ह चरकाध्वर्यवः । - यदि तं चरकेभ्यो वा यतो वानुब्रवीत् श० ४ । २ । ४ । १ तदु ह चरकध्वर्यवो विगृह्वन्ति, शतपथ ४ । २ । ३ । १५ प्राजापत्यं चरका पालभन्ते, शतपथ ६ । २ । २ । १ इति ह स्माह माहित्यियं चरकाः प्राजापत्ये पशावाहुरिति शतपथ ६-१-१-१० शतपथ ८।१।३ । ७ इत्यादि स्थलों में जो 'चरक' अथवा 'चरकाध्वयु' कहे गये हैं, सब वैशंपायन शिप्य हैं । वायुपुराण पूर्वार्द अध्याय ६२ में भी इसी को पुष्ट किया गया है- ब्रह्महत्या तु यश्चीर्णा चरणाच्चरकाः स्मृताः, वैशम्पायनशिप्यास्ते चरकाः समुदाहृताः ॥ २३ ॥ और यह हम पहिले ही बतला चुके हैं कि चरक-वैशम्पायन महाभारत कालीन था, अतः उसका वा उसके शिष्यों का उल्लख करने वाला ग्रन्थ महाभारत काल से पहिले का नहीं हो सकता। ( ५ ) याज्ञवल्क्य और शतपथ ब्राह्मण के महाभारत कालीन होने में एक और प्रमाण भी है- महाराज जनक की सभा में याज्ञवल्क्य का ऋपियों के साथ नो महान संवाद हुआ था, उसका वर्णन शतपथ काण्ड ११-१४ में है, पियों में एक विदग्ध शाकल्य ११।४।६०३ था, याज्ञवल्क्य के एक प्रश्न का उत्तर न देने से उसका मूर्धा गिर गया १४ । ५।७।२९ यह शाकल्य ऋग्वेद का प्रसिद्ध पि हुया है, यही पदकारों में भी सई- श्रेष्ट था, इसका पूरा नाम देवमित्र शाकल्य था, ब्राह्मवाह सुत याज्ञवल्क्य (वायुपुराण पूर्वार्द्ध ६. । ४१) के साथ इसका वो वाद हुआ था, उसका उल्लेख वायुपुराण पूर्वार्द अध्याय ६० श्लोक ३२-६० में भी है, वायुपुराण के पूर्वाद्ध अध्याय ६० के अनुसार इस देवमित्र शाकल्य
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