११४ [ वैद और उनका साहित्य तथा -- वाजसनेयी महिना के पहिले अठारह अध्यायों को विस्तृत टीका है, और यही इस ब्राह्मण का सब से प्राचीन भाग है। बारह मंड के 'मध्यम कहे जाने से प्रगट होता है कि अन्त के पांच वंड ( या संभवन केवल दस से तेरहवे' तक) ब्राझण का एक स्वतन्त्र भाग समझा जाता था। प्रथम से पंचम काँड नक परस्पर में घनिष्ट संबन्ध है, उनमें याज्ञवल्क्य का-जिसको चौदहवें काड के अंत में सम्पूर्ण शनपथ माझा का रचयिता कहा गया है वार बार वर्णन याता है और उमीको सब से बड़ा प्रमाण-पुरुष माना है । इसमे पूर्वीय लोगों के अतिरिक्त थन्य किसी का वर्णन नहीं पाता इसके विरुद्ध छठे से नौवे काड तक के 'यग्निचयन' के वर्णन में याज्ञाय का नाम एक बार भी नहीं याता और उसके स्थान में एक दुसरे याचार्य शादिल्य को प्रामाणिक "थग्निरहस्य' का चलाने वाला माना गया है, जिसका वर्णन ग्यारहवें से तेरह का तक है । शांडिल्य के थनिरिक्त इसमें गान्धारों, साल्वो और केकयों के नाम भी पाते है, जो पश्चिमोत्तर प्रान्तो के वासी थे। इसी कांड में कई एक अनुक्रमणिकाओं के अतिरिक्त कई एक ऐसी बातों का वर्णन है, जिनका नामणों से कुछ सम्बंध नहीं। उदाहरणार्थ कइ ग्यारह के पांचवें और चौथे अध्यायों में 'उपनयन' श्रध्याय पाचवे से श्रावें तक 'स्वाध्याय और काँड तेरह के साठवें य-याय अन्त्येष्टि संम्कार' और मृतक के स्तम्भ खड़ा करने की विधियों का वर्णन है। तेरहवें खंड में ही 'यश्वमेध यज्ञ' 'पुरुषमेध यज्ञ' और 'सर्व मेध यज्ञ' का वर्णन किया गया है। अन्त का अर्थात् चौदहवां खंद धारण्यक है, इसमें प्रवर्य संस्कार का वर्णन है और इसके अन्तके ६ अभ्यायों में वृह- दारण्यक उपनिषद् है। शतपथ ब्राह्मण के भौगोलिक वणनों से भरट होता है कि कुरु, पांचाल की भूमि उस समय भी ब्राह्मण सभ्यता का न रही थी।
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