905 [वेद घोर उनका साहित्य के ऋषि नहीं दिये गये। केवल प्रजापति को हो ब्राह्मणों का ऋषि कह कर इस विषय को छोड़ दिया है। वास्तव में यदि इस बात पर विचार किया जाय कि वेदों की संज्ञा किस प्रकार माह्मण ग्रन्थों को दी गई तो यह स्पष्ट होता है कि पुरोहित मम्प्रदाय का जो बंदों को यज्ञ परक बनाकर उनके द्वारा बड़ीभारी थाजी- विका कर रहा था, वेदों को कण्ड रखना व्यवसाय था अतः वह वेदों की अपनी मनोनीत व्याख्या माह्मणों से कराना चाहता था । इसलिए उसने ब्राहाणों को ऐसा महत्व दिया। काशी में जब श्रीविशुद्धानन्द मरस्वती से ऋषि दयानन्द का शास्त्रार्थ हुथा तब यही किया गया कि ब्राह्मण ग्रन्थों का एक पत्रा घेदकह कर उपस्थित किया गया। ब्राह्मण वास्तव में वेदों को यज्ञ परक प्रमापित करने के लिये निर्माण किये गये हैं। उनमें यद्यपि वेदी की व्याख्या है--पर वे न तो वेदों के इतिहास ही है और न उनमें वेदों को व्यारया ही है । वे केवल चेदों को यज्ञपरक प्रमाणित करने वाले ग्रन्थ हैं। इन ग्रंथों के भयानक प्रभाव के कारण और महीधर जैसे व्यक्ति का वेदभाग्य पर कुरुचिपूर्ण भाष्य करने के कारण ही पुरोहितों का यजमानों पर प्रबल अधिकार हो गया । यजमान की स्त्री, धन, और सम्पलि सभी पर उनकी मत्ता थी । मध्यकाल के हिन्दूजीवन में यज्ञों और वेदों के नाम पर व्यभिचार का ताण्डव नृत्य इतनी भीषणता मे होना कि भरी सभा में राज महिषी को घोड़े से सहवास कराना पड़े, एक साधारण पतन है। इतिहास बताता है कि हम भयानक कम से कितनी रमणी रस्नों को प्राण और लाज गवानी पड़ी। हिंसा का ऐसा एक छत्र राज्य हुश्रा कि सहस्त्रावधि पशुओं का वध यज्ञ के नाम पर चिरकाल तक होता
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