पृष्ठ:वीरेंदर भाटिया चयनित कविताएँ.pdf/९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

मजदूर को सरकार पर भरोसा नहीं था
कि बचा लेगी वह किसानी
देगी मेहनत का मोल

उसने मेहनत का वसूल उसी दिन मांगा
ओर मजदूर हो गया

कुछ लोग
बिना पढ़े मजदूर हुए
कुछ पढ़ कर मजदूर हो गए
कुछ दिहाड़ी पर मजदूर हुए
कुछ मासिक पर मजदूर हो गए

सबक पीछे भाव एक ही था
कि व्यवस्था
उनका भरोसा नहीं जीत पाई
और उन्हें व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा

व्यवस्था के लिए ये मुफीद लोग थे
जो डरे सहमे
रोज की सांसों पर खड़े
पूस की रात गुजार देने की जुगत लगाते
व्यवस्था में जीने भर की राह तलाशते रहे
व्यवस्था को अपने लिये मोड़ देने का काम
इन्होंने सदियों से छोड़ रखा था

यह कौम मेहनत बेचती रही
पिटती रही

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 99