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किसी रोज मैं
जाल में मृत पाया जाऊं
तो मेरी अंतिम और एकमात्र इच्छा पर सोचा जाए
कि फैल कर बिखर कर सोने की
जीते जी भी
कोई सूरत है क्या?

खंगाला जाए लार का इतिहास भी
कि जाल की वृत्ति वाला कोई एक भी
मरने तक
क्या बचा रह पाया अपने ही जाल में
उलटा लटकने से?

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 90