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मकड़ी


किसी रोज मैं
बिखर कर, फैल कर
सोना चाहता हूं निश्चिंत
आसमान को निहारना चाहता हूं खुली आँख
आकाशगंगा हो जाना चाहता हूँ
बहना चाहता हूं निरंतर,
सिमट जाता है लेकिन
सिकुड़ जाता हूं
सहम जाता हूँ
सहमा रहता हूँ निरन्तर
किसी अबूझ भय से

अपने ही बुने जाल में
उलटा लटका में छटपटाता हूं कि सुरक्षित निकल जाऊ
और मोह
कि जाल भी बना रहे सुरक्षित

कोई कहे
कि जाल हटाना ही
एकमात्र उपाय है निकलने का
तो बरस पड़ना उस पर
कि जाल ही तो अर्जित पूँजी है
और लटके रहना उम्र भर
सीधे ही होने भर की छटपटाहट में

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 89