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जनता जो जनार्दन थी
दनादन मानने लगी कि भूल उनकी ही थी
उन्होंने भूल मानी अपनी और ऑक्सीजन नहीं मांगी
उन्होंने भूल मानी अपनी और शांति से मर गए
उन्होंने भूल मानी अपनी
और चुपचाप बहा आये परिजन गंगा में

गंगा रोई
ईश्वर नहीं रोया

गंगा हैरत में थी
कि ईश्वर प्रलय चुन रहा है
ईश्वर मुतमईन था कि मर कर भी जनता
उसे ही ईश्वर मान रही है।

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 86