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गलती जनता की थी



कुछ लोग
बैंक की लाइन में मर गए खड़े खड़े
कुसूर उनका था,
जोर नहीं था गर पैरों में
तो क्‍यों खडे हुए

कुछ लोग पलायन में मर गए
रेलवे ट्रैक पर गडमड मिली उनकी रोटियां और बोटियाँ
कुसूर उनका ही था
रेलवे ट्रैक सुस्ताने की जगह थोडे ही है,
कोई जिंदा बचा होता उनमे तो बताता
कि सुस्ताये नहीं थे वे
सामूहिक आत्महत्या थी वह

कुछ लोग मर गए सरकार से हक मांगते हुए
हक किस बात का
जब चुना है तो ईश्वर समझो उसे
ईश्वर पर विश्वास करो
अविश्वास में मरे वे सब
उनकी ही गलती थी

कुछ लोग महामारी में मर गए
उनका तो पक्का ही कूसूर था
जब फेफड़े नहीं झेलते महामारी
तो क्‍यों आये चपेट में

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 85