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बिना लड़खड़ाये



कभी नहीं गिरा आदमी

गिर रहा है इनदिनों बिना लड़खड़ाये
जैसे हरा भरा कोई पेड़ सड़क पर आ गिरे औंधे मुँह
जैसे कोई बहुमंजिला इमारत भरभरा कर ढह जाए

आदमी
तड़प रहा है
इंतजार इंतजाम और अंजाम से डरा हुआ
तड़प कर
मर रहा हैं

मर कर इंतजार कर रहा है
अंतिम शरणस्थली पर
इस गए गुजरे सिस्टम से
मुक्त होने के लिए

साजिशें अट्टहास करती हैं
कायनात कांप जाती है
सत्ता गुरु में है
अवाम अजीब कशमकश में
कि बचायेगा कौन

ईश्वर

 

वीरेंदर भाटिया : चयनित कविताएँ 81